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मध्यकालीन हिन्दी कविता

मध्यकालीन हिन्दी कविता

हिन्दी कविता की एक हजार वर्षो की विकास-यात्रा में मध्यकालीन काव्य को साहित्य की प्रवृत्तियों के आधार पर भक्तिकाल और रीतिकाल के रूप में अभिहित किया जाता हैं । कालक्रम की दृष्टि से भक्तिकाल पूर्वमध्य काल और रीतिकाल उत्तर मध्यकाल कहा जाता है ।

मध्यकाल भारत में सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से उथल पुथल भरा और संघर्षो का काल रहा है । मध्य-पूर्व एशिया के देशों से शासन के रूप में एक विभिन्न जाति के आगमन से भारत में परिवर्तन की तेज लहर दृष्टिगत होती है ।

राजनीतिक पटल पर मुस्लिम और हिन्दू शासकों और सामंतों के बीच राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष चला । सामाजिक सत्ता पारम्परिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार तथोक्त ऊँची जातियों के पास थी ।

सामाजिक रूप से निम्न स्तर पर जीवन जिनें वाली जातियों की बडी संख्या थी । वर्ण व्यवस्था से बाहर पडी हुई दलित जातियाँ भी थी । मुस्लिम धर्म आने के बाद मुस्लिम धर्म एक विकल्प के रूप में इन जातियों के लोगों को सुलभ हो गया ।

बहुत सी अस्पृश्य या दलित जातियों ने धर्मान्तरण कर स्लाम को स्वीकार कर लिया था । समाज में सामाजिक दृष्टि से नए ढंग की गतिशीलता दिखाई पडती है । इनमें नया सामाजिक आत्मविश्वास दिखाई देता है ।

इस काल के कविता के भावबोध में अपनी पूर्ववर्ती कविता की तुलना में आए परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा है , कोई भी मनुष्य जिसे प्रन्द्रहवीं तथा बाद की शताब्दियों का साहित्य पढने का मौका मिला है , उस भारी व्यवधान को लक्ष्य किए बिना नही रह सकता , जो पुरानी और नई धार्मिक भावनाओॆ में विद्यमान है ।

हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं , जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है , क्योकि इसका प्रभाव आज भी विद्यमान है । इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय गो गया था ।

हिन्दी कविता के भाव-बोध में आए इस बदलाव को चिह्नित करते हुए चिन्तकों – आलोचकों ने इसे भक्तिकाल नाम दिया । उत्तर भारत में इस भक्तिकाल के उद्भव और विकास को लेकर आलोचकों में मैतक्य नहीं है ।

भक्ति के उदय के सम्बन्ध में आ.रामचन्द्र शुक्ल देश में इस्लामी राज्य सत्ता की प्रतिष्ठा को मानते है । इससे हिन्दू जनता के हृदय में हताशा , निराशा फैल गई थीं । इस हताश-निराश जाति के सामने ईश्वर के सामनें जाने के सिवा रास्ता क्या था ? जबकि आ,हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि भारत में इस्लाम नहीं भी आया होता तों भी भक्तिकाल अपनी स्वाभाविक गति से आता । वह इसे भारतीय चिंता की प्राणधारा का सामाजिक विकास मानते है ।

हिन्दी के भक्ति काल के साहित्य की शुरूआत इसी नीची समझने जाने वाली जातियों में जन्मे लोगों के सांस्कृतिक विकास से हुई । इनके ऊपर नए इस्लाम धर्म के साथ साथ पूर्व के सिद्ध और नाथ कवियों व सन्तों का प्रभाव पडा ।

उत्तर भारत में भक्ति का प्रारम्भ निर्गुण भक्तों / सन्तों से माना जाता है । ये सभी सन्त प्रायः सामाजिक रूप से पिछडीं जातियों में उत्पन्न थे । इन सन्तों ने समाज में व्याप्त सामाजिक स्तर भेद , असमानता और ऊँच – नीच की भावना को धर्म – विरूद्ध माना । वेद और धर्मशास्त्रों के नाम पर प्रचलित धार्मिक- सामाजिक मान्यताओं और रूढियों का तीव्र खण्डन किया सन्तों ने । ब्राह्मण और शूद्र की मानवीय समानता की घोषणा भक्त सन्तों ने की । इन्होनें रहनी अर्थात् आचार व्यवहार री शुद्धता को प्रमुखता दी । ईश्वर उनके लिए त्राता के रूप में नहीं बल्कि मित्र या प्रियतम के रूप में काम्य है । इन सन्तों के द्वारा रचित दोहों या पदों को निर्गुण भक्ति – काव्य के अन्तर्गत गिना जाता है ।

भक्तिकाल को राम विलास शर्मा ‘लोक जागरण’ कहते हैं तो नामवर सिंह इसे ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ मानते हैं। नामवर सिंह के अनुसार – “भक्तिकाल एक व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन था, जिसके मूल में यह धारणा निहित थी कि विद्यमान व्यवस्था में कहीं कोई भारी गड़बड़ी हो गई है। सभी भक्त कवियों की रचनाओं में इस प्रकार के भाव मिलते हैं। इस गड़बड़ी के कारणों और इनसे उबरने के उपायों के संबंध में मतभेद है। निर्गुण शाखा के कवि इसमें परिवर्तन चाहते थे और धार्मिक बाह्याचार को इसका कारण समझते थे। सगुण मत वालों के अनुसार इस बुराई की जड़ यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में शिथिलता आ गई है, सभी वर्णों के लोग अपने कर्त्तव्य से च्युत हो गए हैं। इसलिए इसको सुधारने का तरीका यह है कि इस व्यवस्था को फिर से पुराने आदर्श के अनुसार ढाला जाए।

भक्ति काल के साहित्य को प्रायः दो कोटियों में विभाजित किया जाता है “निर्गुण भक्ति साहित्य और सगुण भक्ति साहित्य। निर्गुण भक्ति साहित्य को भी सन्त काव्य और सूफी काव्य में विभाजित किया जाता है। सन्त साहित्य में सामाजिक असन्तोष का स्वर बहुत तीव्र है। वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति-पाँति आधारित समाज-व्यवस्था सन्त कवियों को स्वीकार नहीं थी। सूफी साहित्य में लोक में प्रचलित प्रेम कथानकों को आधार बनाकर प्रेमाख्यानों की रचना की गई। भक्ति आन्दोलनों की शुरुआत निर्गुण मत वालों के साथ हुई और सगुण मत के भक्तों ने उसे पर्याप्त विकसित किया।

सगुण भक्ति को राम और कृष्ण के साकार रूप की आराधना के आधार पर राम भक्ति और कृष्ण भक्ति शाखा के रूप में पहचान मिली। इसके मूल में अवतारवाद की कल्पना और पुनर्जन्म में विश्वास है। राम के प्रति वैधीभक्ति और कृष्ण के प्रति रागानुगा भक्तिपूरित रचनाएं लिखी गईं। ये भगवान के रूप को मानवीय और उनसे सम्बन्ध को व्यक्तिगत रूप में स्वीकारते हैं। सूरदास, मीरा, रसखान आदि कृष्णभक्ति के प्रमुख कवि हैं। कृष्ण भक्ति शाखा के सूरदास की भक्ति में ‘भावाकुल व्यक्तिवाद’ मिलता है। रामभक्ति शाखा के तुलसीदास प्रमुख कवि हैं। इनमें ‘मर्यादावाद’ प्रमुख है (आचार्य रामचंद्र शुक्ल सूरदास को ‘लोकमंगल की सिद्धावस्था’ और तुलसीदास को ‘लोकमंगल की साधनावस्था’ का कवि मानते हैं ।

ढाई-तीन सौ वर्षों के भक्तिकाल को हिन्दी का स्वर्ण-युग कहा जाता है। इसी काल में कबीर ने कहा “संस्कीरत कूप जल भाखा बहता नीर”। लगभग सभी भक्त-कवि इस बात पर सहमत हैं। सभी ने लोकभाषा या देशभाषा की श्रेष्ठता को स्वीकारा। संस्कृत की श्रेष्ठता के बाद भी भक्त कवियों ने लोकभाषा में रचनाएं कीं। कबीर ने पंचमेल सधुक्कड़ी, जायसी और तुलसी ने अवधी, मीराँ ने राजस्थानी और सूरदास ने ब्रजभाषा में काव्य लिखा।

इस समय तक ब्रजभाषा काव्यभाषा के रूप में सर्वस्वीकृत हो चुकी थी। अवधी में ‘रामचरित मानस जैसा महाकाव्य रचने वाले तुलसीदास को भी अपनी निपुणता दिखाने के लिए ब्रजभाषा में काव्य रचना करनी पड़ी। भक्तिकाल पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं “यह एक ऐसा दौर था, जिसमें पहली बार आम जनता सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय हुई। उसने पहली बार अपने संत और कवि पैदा किए। चमार (रैदास), जुलाहे (कबीर), डोम (नाभादास), धुनिया (दाइ), छीपी (नामदेव), नाई (सेन), कसाई (सधना) आदि ने अपनी आशाओं और आकांक्षाओं को वाणी दी।

भक्ति काल का आरम्भिक उल्लास और जीवंतता प्रायः मंद पड़ने लगी। सामाजिक असंतोष को वाणी देने वाली ऊर्जा धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी। भक्ति की लौ मंद पड़ने लगी। ऐहिकता बढ़ने लगी। संघर्ष का दौर खत्म हो चुका था। राजनीति में भी संघर्ष की जगह ऐश्वर्य-विलास ने ले ली थी। इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए नामवर सिंह कहते हैं – “साहित्य जहाँ उत्पादक वर्ग से सम्बन्धित था, वहाँ अब उपभोक्ता वर्ग के विलास की वस्तु बनने लगा। कवि झोंपड़ी छोड़कर राजमहलों में पहुँचने लगे। इससे हिन्दी कविता में एक नई प्रवृत्ति शुरू हुई।”

भक्तिकाल की कविता के केन्द्र में ईश्वर था, यद्यपि ईश्वर की लीलाभूमि यह जगत् था। इसलिए भक्तिकालीन काव्य के ईश्वरोन्मुख होने के कारण ‘प्राकृत जनों का गुणगान करने से काव्य-कर्म के सांसारिक होने का भय था। कवियों के लिए यह देस ‘बिराना’ था अर्थात् संसार त्याज्य था। संसार सुन्दर होते हुए भी त्याग की वस्तु था। पर जैसे ही ईश्वर के प्रति आस्था क्षीण हुई, काव्य-विषय भी बदला। ‘राधा-कन्हाई’ कविता के केन्द्र में होते हुए सुमिरन के बहाने हो गए। राधा-कृष्ण के प्रेम की आड़ में कवियों ने लौकिक श्रृंगार के फुटकर पदों की रचना प्रारम्भ कर दी।

उत्तर-मध्यकाल के आते आते राजनीतिक संघर्ष सीमित होने लगा था। मुगल साम्राज्य का वैभव स्थापित हो चुका था। यह समृद्धि और विकास का समय है। भक्तिकाल से यह इसी अर्थ में भिन्न है कि इसमें विलासिता ही मुख्य कर्म हो गया। नवाब, सामंत, मनसबदार, जागीरदार सभी आकंठ भोगविलास में डूबे हुए थे ।

हिन्दी में रीति-काव्य के विकसित होने के बहुत से कारण बताए जाते हैं। हला है – संस्कृत में इसकी लम्बी परंपरा, दूसरा है – भाषा कवियों को मिलने वाला राज्याश्रय। काव्य-रचना भी इस विलासतापूर्ण जीवन में शामिल हो गई। कुछ राजा भी स्वयं काव्य-रचना का शौक रखते थे। जो शासक स्वयं कवि-कर्म न कर पाते, वे कवियों को आश्रय देते। राज्याश्रय प्राप्त कर कवि उन्हें रिझाने के लिए काव्य रचने लगे। इससे इस काल में काव्य-सृजन स्वयं उद्देश्य बन गया। काव्य के बाहर काव्य का प्रयोजन सीमित हो जाने से काव्य के विषय-वस्तु और काव्य-उपादान भी सीमित हो गए। कविता लोक जीवन से कटकर दरबारों की सजावट की वस्तु बन गई। आश्रयदाता को संतुष्ट करना कवियों का उद्देश्य बन गया। इस काल की कविता पर नामवर सिंह कहते हैं – “इस दौर में दरबारी कवियों को फारसी की प्रेमपूर्ण कविता का भी मुकाबला करना था।

रीतिकाल के कवियों के सामने फारसी के कवि आदर्श और चुनौती थे। इन सब का परिणाम यह निकला कि सीमित उपादानों में कवि-प्रतिभा कुंठित होने लगी।” इस युग की कविता पर टिप्पणी करते हुए ठाकुर ने लिखा कि – “मीन मृग खंजन कमल नैन’ और ‘जस और प्रताप की कहानी’ सीखकर ‘लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।”

केशवदास की ‘कवि प्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ से रीतिकालीन कविता का प्रारम्भ माना जाता है। लक्षण ग्रन्थों की रचना-परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से चली। इसके बाद तो लक्षण ग्रन्थों की बाढ़ सी आ गई। इससे कविता लिखने की एक विशिष्ट रूढ़ि बन गई। लक्षण ग्रन्थकर्त्ता पहले एक छंद में किसी रस, छंद या अलंकार के लक्षण बता देते फिर उसी के उदाहरण रूप में मुक्तक कविता लिख देते। कहने की जरूरत नहीं कि संस्कृत साहित्य में कवि और शास्त्रकार दो भिन्न व्यक्ति हुआ करते थे । प्रायः आचार्य अपने सिद्धांत की स्थापना के लिए प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं से उदाहरण दिया करते थे। लेकिन हिन्दी में यह अन्तर समाप्त हो गया । एक ही व्यक्ति साहित्य-सिद्धान्तों की स्थापना और कवि-रचना दोनों कर रहा था। इससे हिंदी में संस्कृत काव्य शास्त्र के चिंतन की संक्षिप्त उद्धरिणी ही प्रस्तुत हो गई। उदाहरण देने के लिए काव्य-रचने के कारण इस दौर के कवियों में उस स्वच्छंद कल्पना और मौलिक उद्भावना के दर्शन नहीं मिलते।

रीतिकाल को आलोचकों और इतिहासकारों ने दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा है. – रीतिबद्ध और रीतिमुक्त । रीतिबद्ध श्रेणी की पहचान रीति सिद्ध के रूप में भी होती है। ये कवि लक्षण ग्रन्थों के रूप में काव्य-सृजन कर रहे थे। रीति भक्त कवि रीतिबद्ध लक्षणों से मुक्त थे।
रीतिकाल का मूल्याङ्कन करते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल का मत है, ‘ग्रन्थों के कर्त्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय विवेचन करना । अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषत: शृंगार रस) और अलंकार के बहुत ही सरल और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए। ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण-ग्रन्थों से चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी।’ रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवियों में केशवदास, बिहारी, देव, मतिराम, भिखारीदास पद्माकर आदि हैं। इनके अतिरिक्त कुछ कवि रीति-मुक्त भी थे।

इस समय रीतिबद्ध परिपाटी पर रचना करने वाले कवियों से अलग कुछ कवि रीति-मुक्त रचनाएं भी करते थे। इनमें घनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि हैं। इनमें रूढ़ि पालन कम और स्वच्छंदता अधिक मिलती है। इसीलिए इन्हें रीतिमुक्त की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये कवि शृंगारी हैं पर इनके यहाँ रूढ़ियों का पालन नहीं मिलता है। इनमें नायिका भेद का रूढ़ि विधान नहीं है, प्रेमी और प्रिय के बीच दूती की भी कोई भूमिका नहीं है। रीतिबद्ध काव्य बहिर्जगत को ही देखता-दिखाता है जबकि रीतिमुक्त काव्य बहुत हद तक अन्तर्मुखी है।
रीति काल का मूल्याङ्कन करते हुए नामवर सिंह कहते हैं, “हिंदी का रीतिकाव्य सामंती विलास का सुन्दर दर्पण है।”… काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का एकछत्र शासन स्थापित हो गया और यह ब्रजभाषा भी वाक्सिद्ध कवियों के हाथों सज-सँवर कर अत्यन्त लोचयुक्त, ललित और व्यंजक काव्यभाषा बन गई। रीतिकाव्य ने हिन्दी में एक बहुत बड़े काव्य-रसिक सहृदय समाज का निर्माण किया, जिसका प्रभाव आधुनिक दिनों तक परिलक्षित होता रहा। अनेक सीमाओं के बावजूद रीतिकाल ने हिन्दी साहित्य में में भी बहुत युग काव्य-कला और शब्द-साधना की चेतना जगाई, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।”

सूरदास की कथा

सूरदास की कथा

सर्वाधिक प्राचीन स्रोत ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ और ‘अष्टसखान की वार्ता’ के अनुसार सूर का जन्म सं० 1535 में दिल्ली के निकट सीही नामक गांव में बसने वाले एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। सूरदास जन्मांध थे या बाद में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन की तरह अंधे हुए – इस बात को लेकर बड़ा विवाद है। लेकिन सूरदास ने बार-बार अपने पदों में स्वयं को अंधा कहा है- ‘सूर कहा कहौं द्विविध आंधरो । ‘


माता-पिता की निर्धनता और अपनी अंधता के कारण सूरदास को परिवार का स्नेह नहीं मिल सका और बचपन में ही विरक्त होकर घर से निकल पड़े। मथुरा और आगरा के बीच यमुना नदी के तीर गऊघाट पर सूरदास वैराग्यभाव से विनय के पद रचते और गाकर भक्तों के हृदय को आनंद विभोर कर देते थे। एक बार बल्लभाचार्य ब्रज जाते हुए गऊघाट पर रुक गए। सूरदास ने उन्हें विनय के पद सुनाये। बल्लभाचार्य मुग्ध हो गए और उधर सूरदास बल्लभाचार्य जैसे गुरु को प्राप्त कर कृतकृत्य हो उठे।


बल्लभाचार्य ने सूरदास को पुष्टिमार्ग में दीक्षित करते हुए कहा कि सूर होकर अपने पदों में इतनी दीनता क्यों प्रकट करते हो, कुछ भगवत – लीला का वर्णन करो – ‘सूर ह्वै के ऐसो काहे को घिघियातु है कछु भगवत लीला वर्णन करि’। तब से सूरदास दीन-भाव के पद बनाना छोड़कर लीला के पद रचने लगे।


सूरदास बल्लभाचार्य द्वारा स्थापित पुष्टिसम्प्रदाय (वैष्णव भक्ति की एक शाखा जिसमें भगवान की कृपा को सब कुछ माना जाता है और भगवान को सखा भाव से भजा जाता है) के सर्वश्रेष्ठ भक्त कवि थे। बल्लभाचार्य के बाद उनके सुपुत्र विट्ठलनाथ ने पुष्टि सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ आठ कवियों की एक मंडली बनाई, जो अष्टछाप के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदास इसी अष्टछाप के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भक्त कवि थे ।


सगुण शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्तिधारा के अनन्य भक्त कवि सूरदास के पच्चीस ग्रंथ कहे जाते हैं, पर इनमें से अनेक प्रामाणिक सिद्ध नहीं होते और कुछ (सूरसागर) के अंश मात्र हैं। सूरदास की प्रामाणिक रचनाएँ हैं ( सूरसागर, सूर-सारावली, साहित्य-लहरी, सूरपंच्चीसी, सूरसाठी तथा सूरदास के विनय के पद आदि ।

सूरदास की कविता में वात्सल्य और शृंगार का मणिकांचन योग देखने को मिलता है। आचार्य सूरदास शुक्ल ने लिखा है “ शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।” इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। बाल मनोदशाओं और बाल-क्रीड़ाओं के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म हर पहलू का जैसा रूपांकन सूर के काव्य में उपलब्ध होता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूक्ष्म निरीक्षणों से भरा हुआ सूर का बालवर्णन मनोविज्ञान की अनेक प्रक्रियाओं को दरसाता है। माता जसोदा कान्हा को पालने में झुला रही है और आनंदित हो रही है – ‘जसोदा हरि पालनै झुलावै’। मुँह में दही लेपे बाल कृष्ण अद्भुत सुंदर दिख रहे हैं – ‘सोभित कर नवनीत लिए । ‘


श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग और वियोग में सूर का काव्योत्कर्ष देखते ही बनता है। सूर की गोपियों का प्रेम कोई सीमा नहीं जानता। वह कोई बंधन नहीं मानता, न संयोग में न वियोग में। उसका लक्ष्य है – तन्मयता । कृष्ण के वियोग में गोपियों के साथ व्रज की पूरी प्रकृति वियोग में जल रही है ‘विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे।’ मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में” सूर का प्रेम आज भी रूढ़ि मुक्त समाज और प्रेम के लिए संघर्ष में प्रेरणाप्रद है।”


भ्रमरगीत’ की वाग्विदग्धता विलक्षण है। आचार्य शुक्ल गोपियों के वाक् चातुर्य पर रीझकर लिखते हैं, “सूर का सबसे मर्मस्पर्शी वाग्विदग्धपूर्ण अंश ‘ भ्रमरगीत’ है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता।” उद्धव का ज्ञान धरा का धरा रह जाता है जब गोपियाँ उन्हें असफल व्यापारी की संज्ञा देती हैं- “आयो घोष बड़ो व्यापारी” गोपियाँ अपने वाक्चातुर्य से निर्गुण भक्ति की धज्जियां उड़ा देती हैं। वे कहती हैं कि यह निर्गुण निराकार कृष्ण कौन है, किस देश का वासी है, मुझे नहीं मालूम – निर्गुन कौन देस को वासी’। जिस भक्ति में भगवान का कोई रूप-रंग ही न हो, वह भक्ति किस काम की – ‘अविगत-गति कछु कहत न आवै।”

विनय के पद [1]

अविगत-गति कछु कहत न आवै ।

ज्यों गूँगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै ।

परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै ॥

मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।

रूप-रेख – गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै ॥

सब बिधि अगम बिचारहि ताते सूर सगुन-पद गावै ॥

विनय के पद [2]

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ ।

समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।

इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ।

सो दुबिधा पारस नहिँ जानत, कंचन करत खरौ ।

इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।

जब मिलि गए तब एक बरन है, गंगा नाम परौ ।

तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ ।

कै इनकौ निरधार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ।

बाल लीला के पद [3]

जसोदा हरि पालनै झुलावै ।

हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै ।

मेरे लाल कौं आउ निँदरिया, काहँ न आनि सुवावै ।

तू काहै नहिँ बेगहिँ आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ।

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।

सोवत जानि मौन है कै रहि, करि करि सैन बतावै ।

इहिँ अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।

सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद – भामिनि पावै ।

बाल लीला के पद [4]

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।

लैन्दर चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन- तिलक दिए ।

लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिँ पिए ।

कठुला कंठ, बज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।

धन्य सूर एको पल इहिँ सुख को सत कल्प जिए ॥

वियोग श्रृंगार [5]

मधुबन तुम कत रहत हरे ।

बिरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे ।

मोहन बेनु बजावत तुम तर, साखा टेकि खरे

मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मुनि जन ध्यान टरे ।

वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि चुहुप धरे ।

पुष्पा ‘सूरदास’ प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे ॥

वियोग श्रृंगार [6]

आयो घोष बडों ब्यापारी ।

लादि खेप गुन ज्ञान – जोग की ब्रज में आय उतारी ।

फाटकी दै कर हाटत माँगत भौरै निपट तु भारी ।

धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी ।

इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?

अपनो दूध छाँडि को पीवै खार कूप को पानी ।

ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावो ।

मुँहमाग्यो पैंहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ ।

वियोग श्रृंगार [7]

हरि हैं राजनीति पढि आए ।

समुझी बात कहत मधुकर जो ? समाचार कछु पाए ?

एक अति चतुर हुते पहिले ही , अरु करि नेह दिखाए ।

जानी बुद्धि बडी , जुवतिन को जोग सँदस पठाए ।

भले लोग आगे के , सखि री ! परहित डोलत धाए ।

वे अपने मन केरि पाइए जे हैं चलत चुराए ।।

ते क्यों नीति करत आपनु जे औरनि रीति छुडाए ।

राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए ।।

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर ! हँसि समुझाय , सौंह दै बूझति साँच , न हाँसि ।।

को है जनक , जननि को कहियत , कौन नारि को दासी ?

कैसौ बरन भेस है कैसौ केहि रस में अभिलासी ।

पावैगो पुनी कियो आपने जो रे ! कहैगो गाँसी ।

सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी ।।  

कबीरदास की गाथा

कबीर नें धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पंरपराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में कबीर ने ऐसे विश्वधर्म की स्थापना की जो जन - जीवन की व्यवहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मों के प्रसार में समानता रखते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके ।


जाके मुँह माथा नहीं , नहीं रूपक रूप । पुहुप वास ते पातला , ऐसा तत्व अनूप ।।

नाम के अनुसार कबीर एक महान भक्त हुए । अरबी भाषा में कबीर का अर्थ महान होता है तभी तो भक्त माल आइन-ए-अकबरी ,परचई,खाजीनत -उलआसफिया तथा दाबिस्तान ई-तवारीख सरीखे प्राचीन ग्रंन्थों मे कबीर की महानता दर्शायी गई है । आधुनिक युग में रवीन्द्र नाथ टैगोर , श्यामसुन्दर दास , पीताम्बर दत्त , बडथ्वाल , परशुराम चतुर्वेदी , हरप्रसाद शास्त्री , गोविन्द त्रिगुणायत तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने कबीर की महत्ता की पडताल की वर्तमान में कबीर पर डाॅ पुरूषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ' अकथ कहानी प्रेम की ' काफी चर्चा हो रही है

उत्तर भारत के प्रथम भक्त कवि कबीरदास के जन्म वर्ष , स्थान , एवं उनकी जाति - धर्म - आदि के बारे में विद्वानों के बीच काफी मतभेद है । इसका कारण यह है कि उन्होने स्वयं अपने बारे में स्पष्टतया कुछ नही लिखा है । सन् 1600 ई. में अनन्तदास रचित , श्री कबीर साहबजी परचई के अनुसार

"कबीर जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे । वे गुरू रामानंद के शिष्य थे । इन्होनें 120 वर्ष की आयु पायी । अधिकांश शोध कबीर का जन्म संवत् 1455 में होना मानते हैं । नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति के घर कबीर पले-बढे ।

कबीर पर उपनिषद् के अद्वैतवाद और इस्लाम के ऐकेश्वरवाद का प्रभाव था । साथ ही कबीर पर वैष्णव भक्ति का गहरा प्रभाव है । कबीर नें रामनन्द के सगुण राम को निर्गुण और वर्णनातीत बना दिया ।

कबीर की कविता में गुरू महिमा , संत - महिमा , सत्संगति के लाभ तथा ईश - विनय - आदि की प्रमुखता है । उनका समस्त साहित्य धर्म , समाज , आचरण , नैतिकता तथा व्यवहार संबंधी विषयों का भंडार है । कबीर ने कटु आलोचना पद्धति को अपनाकर बडी निर्भीकता एवं तेजस्विता के साथ पंडित , पुजारी , मौलवी , अवधूत , वैरागी , सभी को फटकारा है । सभी धर्मों के बाह्याडंबरों में व्याप्त अनैतिक आचरणों की घोर निंदा की है । अपनी स्पष्टवादिता एवं निष्पक्षता के कारण ही कबीर का साहित्य जनसाधारण की दृष्टि में अत्यन्त महान एवं प्रभावशाली है ।

कबीर के साहित्य में उच्चकोटि के समन्वयवाद की झाँकी मिलती है । इसमें हिन्दू - धर्म तथा इस्लाम धर्म में समता स्थापित करने का प्रयत्न हुआ है । वर्ण - भेद एवं वर्ग भेद को दूर करके जाति - पाति एवं छुआछूत की भावना को नष्ट करने का प्रयास है । कबीर में हृदय की सच्चाई एवं अनुभूति का प्राधान्य है , जिसे कबीर नें प्रतीकों के माध्यम से बडी सजीवता एवं मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है ।

कबीर में दर्शन एवं रहस्यानुभूति के तत्व भी मिलते है । इनकी दार्शनिक अभिव्यक्तियों में हंस , सती , इडा , नाडी , पिङ्गला , गङ्गा , सुन्दरी , विरहिणी स सूर्य आदि प्रतीक शब्दों का प्रयोग हुआ है । काव्य अभिव्यक्ति में स्त्री मायारूपा होती है , फलस्वरुप नारी के प्रति निंदा भाव भी कहीं - कहीं मिल जाते है । प्रेम की महिमा कबीर साहित्य का वैशिष्ट्य है । जब वें परम तत्व से दिव्य - प्रेम की मस्ती में होते है - तब उनकी सर्वश्रेष्ठ कविता फूटती है ।

भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । कबीर के मर्मज्ञ विद्वान पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी नें उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है । उनकी भाषा में कई भाषाओं का मिश्रण था , इसलिए उनकी भाषा सधुक्कडी भाषा कहलाती है । कई स्थानों पर उन्होनें उलटबासी भाषा का प्रयोग किया है , जो बाह्य रूप से नितान्त असंगत प्रतीत होती है किन्तु गहराई से देखने पर उसमें खास तरह की संगती होती है ।

साखी , सबद और रमैनी कबीर की रचनाएं मानी जाती हैं तथा , इनका संकलन ,, बीजक ,, कहलाता है ।।

।। कबीर के दोहे ।।

गुरुदेव कौ अङ्ग

1. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार । लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावण वार ॥

2. पीछें लागा जाइथा, लोक वेद के साथि । आगें थैं सतगुरु, मिल्या दीपक दीया हाथि ॥

सुमिरण कौ अंग

3. लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार । । कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुर्लभ हरि दीदार ॥

बिरह कौ अंग

4. हँसि हँसि कंतन पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ । जो हाँसें ही हरि मिलै, तौ नहीं दुहागनि कोइ ॥

ग्यान बिरह कौ अंग

5. आहेड़ी दौं लाइया, मिरग पुकारे रोइ । जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ ॥

साखियाँ

6. हाथी चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि । स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥

7. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान । निरपख होइ कै हरि भजै, सोई संत सुजान ॥

पद

जतन बिन मिरगन खेत उजारे

टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे ॥ टेक ॥

अपने-अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे ।

अति अभिमान बदत नहीं काहू, बहुत लोग पचि हारे ।

बुधि मेरी किरषी, गुर मेरौ विझका, अखिर दोइ रखवारे ।

कहै कबीर अब खान न दैहूँ, बरियाँ भली सँभारे ॥

लोका मति के भोरा रे ।

जो कासी तन तजै कबीरा, तौ राँमहि कहा निहोरा रे ॥ टेक ॥

तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा

ज्यूँ जल मैं जल पैंसि न निकसै, यूँ दुरि मिलै जुलाहा ।।

राँम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा ।

गुरु प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा ॥

कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परें जिनि कोई ।

जस कासी तस मगहर कैंसर हिरदै राँम सति होई ॥

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